संपादकीय कर्मप्रेरणा से टूटेगी किंकर्तव्यविमूढ़ता : पढ़ें पथप्रेरक (04-10-2024) का संपादकीय आलेख

जीवन, व्यक्ति का हो अथवा समाज का, सदैव गतिशील रहता है। जो जड़ है, उसे जीवित नहीं कहा जा सकता। गति ही जीवंतता का प्रमाण है। गतिशील होने के कारण जीवन में अनेक प्रकार की बाधाओं का आना भी स्वाभाविक और अनिवार्य है। समाज भी चेतन व्यक्तियों से निर्मित होने के कारण अपने आप में एक चेतन और जीवित अस्तित्व है जो निरंतर विकास के पथ पर गतिमान रहता है। अतः सामाजिक जीवन में भी अनेक प्रकार की बाधाएं और समस्याएं जन्म लेती रहती हैं। समाज के सदस्य के रूप में हम सभी इन बाधाओं और समस्याओं को अनुभव करते हैं, उनसे विचलित और व्यथित होते हैं, उन पर चिंताएं व्यक्त करते हैं, उनको हल करने के उपायों के संबंध में सुझावों की वर्षा भी करते हैं, उन सुझावों पर अन्यों से अमल करने की अपेक्षाएं करते हैं और वे अपेक्षाएं पूरी न होने पर आक्रोशित होकर समाज के राजनेताओं, सामाजिक संस्थाओं आदि के साथ ही पूरे समाज को कोसने से भी चूकते नहीं हैं। लेकिन ऐसा करते समय हम जीवन और समस्याओं के स्वाभाविक और अवियोज्य संबंध को भूल जाते हैं और इसी कारण समस्याओं के बाह्य स्वरूपों में ही उलझ कर उन्हें हल करने के एकांगी प्रयासों तक सीमित हो जाते हैं और अन्ततः इन प्रयासों की असफलता, जो इनके एकांगीपन के कारण अवश्यंभावी है, से हताशा के शिकार हो बैठते हैं। हम इस सत्य को नहीं समझ पाते कि गतिमान जीवन में समस्याओं का आना एक प्रक्रिया है और इसीलिए समस्याओं के समाधान की भी एक प्रक्रिया हमारे पास होनी चाहिए। एक ऐसी प्रक्रिया जो किसी समस्या विशेष में ही उलझ कर समाप्त होने की बजाय सतत रूप से सभी समस्याओं के समाधान के लिए आधार की भूमिका निभा सके।

समाधान की आधारभूमि के रूप में वह प्रक्रिया क्या हो सकती है, इसे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें समाज की समस्याओं के बाह्य स्वरूपों को देखने वाली सीमित दृष्टि को त्यागकर समस्याओं के मूल कारण को जानने का प्रयत्न करना होगा। विचार करें कि जब हम सामाजिक समस्याओं पर चिंतन अथवा चर्चा करते हैं तब हम किस समस्या को समाज की मुख्य समस्या मानते हैं? हम पाएंगे कि अलग-अलग व्यक्ति अथवा संस्थाएं अलग-अलग समय में अलग-अलग समस्याओं को समाज की मुख्य समस्या मानकर उन्हीं के समाधान को प्राथमिकता देकर कार्य करते हैं। कोई समाज में शिक्षा व रोजगार के अभाव को मुख्य समस्या मानता है, कोई दहेज, टीका, नशा आदि कुरीतियों को समाज की प्रमुख समस्या बताता है, कोई इतिहास विकृतिकरण को समाज के लिए सबसे गंभीर चुनौती मानता है तो कोई राजनीति और प्रशासन में घटते हमारे प्रतिनिधित्व को लेकर सबसे अधिक चिंता व्यक्त करता है। ऐसी ही अनेकों समस्याएं समाज के सामने सदैव उपस्थित रहती ही हैं और समस्याओं की यह उपस्थिति प्रत्येक जीवित समाज के लिए उतनी ही सत्य है जितनी हमारे समाज के लिए। इसीलिए वास्तविक प्रश्न समस्याओं की उपस्थिति का नहीं बल्कि उन समस्याओं को लेकर समाज द्वारा अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण का है। समाज मूलत: हमारी सामूहिक शक्ति का प्रतिनिधि है और इस विराट सामूहिक शक्ति के सामने कोई भी समस्या लंबे समय तक टिक नहीं सकती। इस शक्ति के सक्रिय रहने तक सभी बाधाओं को पार करते हुए समाज की उर्ध्वगामी गति निरंतर बनी रहेगी। लेकिन यदि यह शक्ति निष्क्रिय हो जाए तो मार्ग में आने वाली सामान्य बाधा को भी पार नहीं किया जा सकता और ऐसा होने पर कोई भी समाज जड़गामी बनकर पतन के मार्ग पर चल पड़ता है। लेकिन समाज की विराट शक्ति विद्यमान होते हुए भी निष्क्रिय क्यों हो जाती है इस पर विचार करें तो हम पाएंगे कि इसका मूल कारण है - समाज में किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति का पैदा होना। हमारे समाज के सामने जितनी भी समस्याएं हैं, उन सभी का समाधान समाज की सामूहिक शक्ति के नियोजन से संभव है लेकिन समाज में किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति के कारण यह शक्ति निष्क्रिय और बिखरी हुई रहती है। इसलिए हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता किंकर्तव्यविमूढ़ता की इस स्थिति से बाहर निकलने की होनी चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि ऐसा कैसे किया जाए? इसका उत्तर यही है कि किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति वास्तव में अनिर्णय और निष्क्रियता की स्थिति है इसलिए इससे बाहर निकलने के लिए समाज में कर्म की प्रबल प्रेरणा उत्पन्न करनी आवश्यक है।

इस प्रबल कर्मप्रेरणा का सृजन ही वह प्रक्रिया है जो सामाजिक जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए आधारभूमि बन सकती है। कर्मठता ही जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाओं से पराजित हुए बिना गतिशील बने रहने का सूत्र है। लेकिन यह कर्मठता स्वत: पैदा नहीं होती बल्कि इसके लिए प्रेरणा की आवश्यकता होती है। पूज्य श्री तनसिंह जी ने 'भिखारी की आत्मकथा' पुस्तक में लिखा है कि - "कर्म के स्वरूप की प्रेरणा बीज है। जहां यह बीज नहीं होगा, कर्म का पौधा उग ही नहीं सकता।" अतः समाज में प्रेरणा का सृजन ही वह एकमात्र उपाय है जिससे निष्क्रियता की जन्मदाता किंकर्तव्यविमूढ़ता को समाप्त किया जा सकता है। ऐसा किए बिना समाज की समस्याओं को हल करने का कोई भी प्रयत्न सफल नहीं हो सकेगा क्योंकि समाज की व्यापक समस्याओं को हल करने के लिए जिस सामूहिक शक्ति की आवश्यकता है वह किंकर्तव्यविमूढ़ता के कारण निष्क्रिय और बिखरी हुई स्थिति में ही रहेगी। यहां यह भी समझना आवश्यक है कि प्रेरणा शुद्ध रूप में सत्य का ही स्फुरण है इसलिए सच्ची और स्थायी प्रेरणा नकारात्मकता, घृणा, कुटिलता, असत्य जैसे तत्वों से सृजित नहीं की जा सकती। त्याग, तपस्या, प्रेम और बंधुत्व जैसे तत्व ही सच्ची प्रेरणा का सृजन करने में समर्थ हो सकेंगे। इसलिए सामाजिक समस्याओं की मूल कारण स्वरूप किंकर्तव्यविमूढ़ता को दूर करने के लिए इन्हीं तत्वों के माध्यम से कर्म प्रेरणा के निरंतर सृजन की प्रक्रिया पूज्य श्री तनसिंह जी ने श्री क्षत्रिय युवक संघ के रूप में प्रारंभ की। आएं, हम भी इस प्रक्रिया में शामिल होवें और सामाजिक समस्याओं के बाह्य स्वरूप तक ही सीमित न रहकर उनके मूल कारण को समाप्त करने में सहयोगी बनें।

Path prerak

12th October, 2024