प्रतिभा का सामान्य अर्थ है अन्यों की तुलना में विशेष योग्यता। जो व्यक्ति किसी विशेष कार्य को अन्य लोगों की तुलना में अधिक कुशलता से, तीव्रता से और सरलता से करने में सक्षम होता है, उसे उस कार्यक्षेत्र के संदर्भ में प्रतिभाशाली कहा जाता है। यद्यपि संपूर्ण सृष्टि ही परमात्मा की अभिव्यक्ति है और इसीलिए इसके किसी एक अंश को प्रतिभावान और अन्य को प्रतिभाहीन मानना मूल रूप में एक भ्रांति ही है क्योंकि परम सत्ता की प्रत्येक अभिव्यक्ति अपने आप में उतनी ही विशिष्ट, महत्वपूर्ण और प्रतिभावान है जितनी कि कोई अन्य। तथापि, प्रकृति के प्रभाव में जीवन जीते हुए प्रकृतिगत व्यावहारिक तथ्यों की पूर्णतया अवहेलना नहीं की जा सकती और प्रतिभा भी ऐसा ही एक तथ्य है। प्रतिभा प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक ऐसा उपहार है जो व्यक्ति को अन्यों से विशेष क्षमताएं प्रदान करता है और उन क्षमताओं के बल पर वह किसी विशिष्ट क्षेत्र में दूसरों का, जो उस क्षेत्र में उससे कम प्रतिभा या क्षमताएं रखते हैं, नेतृत्व करने की भूमिका में पहुंच जाता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि हम अन्य व्यक्तियों की उस विशेषता से ही प्रभावित होते हैं जो हमारे भीतर नहीं होती इसलिए उनके प्रभाव को स्वीकार कर हम उन्हें चेतन अथवा अवचेतन रूप में अपने नेतृत्व का अधिकार सौंपते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि व्यावहारिक रूप में मानव समाज का प्रतिभाशाली वर्ग ही उसका नेतृत्व करता है और शोध बताते हैं कि समूह में रहने वाले अन्य प्राणियों के संबंध में भी यही सत्य है कि अधिक क्षमतावान व प्रतिभावान सदस्य ही उस समूह के अन्य सदस्यों का नेतृत्व करते हैं।
जैसा कि आलेख में पूर्व में कहा गया कि एक ही सत्ता के अंश होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति उसी की प्रतिभा का प्रतिनिधित्व करता है और इसलिए आदर्श समाज में उसके हर अंश की प्रतिभा को पुष्पित-पल्लवित होने का पर्याप्त अवसर उपलब्ध होना चाहिए और उसके लिए उसको आवश्यक सहयोग भी मिलना चाहिए लेकिन यथार्थ में समाज के तत्कालीन जीवन मूल्यों के अनुरूप जो प्रतिभा होती है वही सर्वाधिक प्रतिष्ठा और महत्व पाती है। उदाहरणार्थ वर्तमान समय में रोजगार परक शिक्षा को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है और उसी के अनुरूप अकादमिक शिक्षा के क्षेत्र में विशेष उपलब्धि प्राप्त करने वालों को प्रतिभावान माना जाता है, धन और सत्ता की अधिक प्रतिष्ठा के कारण धन और सत्ता प्राप्त करने में सक्षम व्यक्ति प्रतिभावान माना जाता है, विचार प्रधान युग के कारण लेखकों, विचारकों आदि को अधिक प्रतिभावान समझा जाता है और इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में भी समसामयिक जीवन मूल्यों के अनुरूप पड़ने वाली प्रतिभा को तुलनात्मक रूप से अधिक प्रतिष्ठा प्रदान की जाती है। वर्तमान में भी देखते हैं कि प्रत्येक समाज इन क्षेत्रों में अपनी प्रतिभाओं को प्रोत्साहित और सम्मानित करने के लिए प्रतिभा सम्मान समारोहों आदि का आयोजन भी करता है। लेकिन प्रतिभा को प्रतिष्ठित करने के इस उपक्रम में एक महत्वपूर्ण सत्य उपेक्षित हो जाता है, वह है - प्रतिभा के साथ जुड़े चरित्र का निर्माण। यह विचार करने योग्य है कि आज शिक्षा, रोजगार जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़ी हुई प्रतिभाएं समाज और उसके आदर्शों के प्रति कितनी निष्ठा रखती है? प्रतिभा के बल पर प्राप्त धन और सत्ता क्या उस धनवान और सत्ताधारी में सामाजिक दायित्वबोध को भी जागृत करते हैं? विचार, भाषण और लेखन की प्रतिभा क्या समाज में सकारात्मकता के सृजन में अपनी भूमिका निभाती हुई दिखाई देती है? चिंतन करने पर इन प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक ही प्राप्त होंगे। इसीलिए यह समझना आवश्यक है कि प्रतिभा महत्वपूर्ण अवश्य है लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वह प्रतिभा किस प्रकार के चरित्र के साथ जुड़ती है क्योंकि इसी से यह निश्चित होगा कि वह प्रतिभा अंततः समाज के लिए उपयोगी होकर उसे श्रेष्ठता की ओर ले जाने वाली बनेगी अथवा उस प्रतिभा के धारक व्यक्ति के अहंकार और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सामाजिक हितों की उपेक्षा करने वाली बनेगी। प्रतिभा भले ही किसी व्यक्ति को प्रकृति से प्राप्त होने वाला उपहार है लेकिन उस प्रतिभा के धारक का चरित्र उस व्यक्ति के स्वयं के प्रयासों और उसके पारिवारिक व सामाजिक वातावरण द्वारा निर्मित होता है। इसलिए व्यक्ति और समाज, दोनों को इस संबंध में सावधानी रखना आवश्यक है कि प्रतिभा का धारक किस प्रकार का चरित्र धारण करता है।
प्रतिभा चूंकि व्यक्ति को अन्यों से विशेष बनाती है इसलिए वह व्यक्ति में अहंकार को जगाने की प्रबल संभावना भी साथ लाती है। अहंकार के साथ प्रतिभा का जुड़ना उस प्रतिभा को कलुषित कर देता है और वह व्यक्ति की तुच्छ महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन मात्र बन कर रह जाती है। समाज के सामूहिक स्वरूप के लिए उस प्रतिभा की जो उपयोगिता हो सकती थी उसकी संभावना अहंकार के कलुष के कारण समाप्त हो जाती है। ऐसे में प्रतिभा को धारण करने वाले व्यक्ति एवं उस व्यक्ति के चरित्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले समाज, दोनों का यह दायित्व बनता है कि वे प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा को अहंकार द्वारा कलुषित होने से बचाएं एवं उसे व्यापक और समाज सापेक्ष बनाएं। प्रतिभा को व्यापक और समाज सापेक्ष बनाने का मार्ग है उसे त्याग पूर्ण चरित्र के साथ संयोजित करना। त्याग का आधार पाकर ही प्रतिभा सच्चे अर्थों में विस्तारित हो सकती है और व्यक्ति और समाज दोनों के विकास में अपनी भूमिका निभा सकती है। किसी भी प्रतिभा की श्रेष्ठतम परिणीति यही है कि वह उन लोगों के लिए भी उपयोगी बने जिनके पास वह विशिष्ट प्रतिभा नहीं है। सामाजिक अन्योन्याश्रितता अर्थात समाज के सामूहिक और सहयोगी स्वरूप का इसी प्रकार से विकास हो सकता है। पूज्य श्री तनसिंह जी ने इसीलिए अपनी पुस्तक 'साधना पथ' में लिखा है कि - "प्रतिभा तो प्रकृति की किसी व्यक्ति विशेष को प्रदत्त वह सामाजिक थाती है, जिसका सदुपयोग प्रतिभावान के असाधारण बनने में नहीं, किंतु साधारण लोगों के प्रतिभावान बनने में है।" इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्रतिभा के अवतरण के लिए त्याग पूर्ण चरित्र की उपजाऊ आधारभूमि उपलब्ध कराई जाए, न कि उसे अहंकार के दलदल में फंस कर नष्ट होने दिया जाए। श्री क्षत्रिय युवक संघ इसीलिए समाज में त्याग की प्रवृत्ति को स्थापित करने के लिए कार्य कर रहा है, साथ ही अहंकार को गलाकर समाज की सामूहिकता में स्वयं को नियोजित करने का अभ्यास अपनी सामूहिक संस्कारमयी प्रणाली के माध्यम से करा रहा है जिससे व्यक्ति की प्रतिभा अहंकार से कलुषित होने की अपेक्षा सामाजिक न्यास के रूप में पूरे समाज के लिए उपयोगी बन सके।
जैसा कि आलेख में पूर्व में कहा गया कि एक ही सत्ता के अंश होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति उसी की प्रतिभा का प्रतिनिधित्व करता है और इसलिए आदर्श समाज में उसके हर अंश की प्रतिभा को पुष्पित-पल्लवित होने का पर्याप्त अवसर उपलब्ध होना चाहिए और उसके लिए उसको आवश्यक सहयोग भी मिलना चाहिए लेकिन यथार्थ में समाज के तत्कालीन जीवन मूल्यों के अनुरूप जो प्रतिभा होती है वही सर्वाधिक प्रतिष्ठा और महत्व पाती है। उदाहरणार्थ वर्तमान समय में रोजगार परक शिक्षा को अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है और उसी के अनुरूप अकादमिक शिक्षा के क्षेत्र में विशेष उपलब्धि प्राप्त करने वालों को प्रतिभावान माना जाता है, धन और सत्ता की अधिक प्रतिष्ठा के कारण धन और सत्ता प्राप्त करने में सक्षम व्यक्ति प्रतिभावान माना जाता है, विचार प्रधान युग के कारण लेखकों, विचारकों आदि को अधिक प्रतिभावान समझा जाता है और इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में भी समसामयिक जीवन मूल्यों के अनुरूप पड़ने वाली प्रतिभा को तुलनात्मक रूप से अधिक प्रतिष्ठा प्रदान की जाती है। वर्तमान में भी देखते हैं कि प्रत्येक समाज इन क्षेत्रों में अपनी प्रतिभाओं को प्रोत्साहित और सम्मानित करने के लिए प्रतिभा सम्मान समारोहों आदि का आयोजन भी करता है। लेकिन प्रतिभा को प्रतिष्ठित करने के इस उपक्रम में एक महत्वपूर्ण सत्य उपेक्षित हो जाता है, वह है - प्रतिभा के साथ जुड़े चरित्र का निर्माण। यह विचार करने योग्य है कि आज शिक्षा, रोजगार जैसे क्षेत्रों में आगे बढ़ी हुई प्रतिभाएं समाज और उसके आदर्शों के प्रति कितनी निष्ठा रखती है? प्रतिभा के बल पर प्राप्त धन और सत्ता क्या उस धनवान और सत्ताधारी में सामाजिक दायित्वबोध को भी जागृत करते हैं? विचार, भाषण और लेखन की प्रतिभा क्या समाज में सकारात्मकता के सृजन में अपनी भूमिका निभाती हुई दिखाई देती है? चिंतन करने पर इन प्रश्नों के उत्तर नकारात्मक ही प्राप्त होंगे। इसीलिए यह समझना आवश्यक है कि प्रतिभा महत्वपूर्ण अवश्य है लेकिन उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वह प्रतिभा किस प्रकार के चरित्र के साथ जुड़ती है क्योंकि इसी से यह निश्चित होगा कि वह प्रतिभा अंततः समाज के लिए उपयोगी होकर उसे श्रेष्ठता की ओर ले जाने वाली बनेगी अथवा उस प्रतिभा के धारक व्यक्ति के अहंकार और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सामाजिक हितों की उपेक्षा करने वाली बनेगी। प्रतिभा भले ही किसी व्यक्ति को प्रकृति से प्राप्त होने वाला उपहार है लेकिन उस प्रतिभा के धारक का चरित्र उस व्यक्ति के स्वयं के प्रयासों और उसके पारिवारिक व सामाजिक वातावरण द्वारा निर्मित होता है। इसलिए व्यक्ति और समाज, दोनों को इस संबंध में सावधानी रखना आवश्यक है कि प्रतिभा का धारक किस प्रकार का चरित्र धारण करता है।
प्रतिभा चूंकि व्यक्ति को अन्यों से विशेष बनाती है इसलिए वह व्यक्ति में अहंकार को जगाने की प्रबल संभावना भी साथ लाती है। अहंकार के साथ प्रतिभा का जुड़ना उस प्रतिभा को कलुषित कर देता है और वह व्यक्ति की तुच्छ महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का साधन मात्र बन कर रह जाती है। समाज के सामूहिक स्वरूप के लिए उस प्रतिभा की जो उपयोगिता हो सकती थी उसकी संभावना अहंकार के कलुष के कारण समाप्त हो जाती है। ऐसे में प्रतिभा को धारण करने वाले व्यक्ति एवं उस व्यक्ति के चरित्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले समाज, दोनों का यह दायित्व बनता है कि वे प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा को अहंकार द्वारा कलुषित होने से बचाएं एवं उसे व्यापक और समाज सापेक्ष बनाएं। प्रतिभा को व्यापक और समाज सापेक्ष बनाने का मार्ग है उसे त्याग पूर्ण चरित्र के साथ संयोजित करना। त्याग का आधार पाकर ही प्रतिभा सच्चे अर्थों में विस्तारित हो सकती है और व्यक्ति और समाज दोनों के विकास में अपनी भूमिका निभा सकती है। किसी भी प्रतिभा की श्रेष्ठतम परिणीति यही है कि वह उन लोगों के लिए भी उपयोगी बने जिनके पास वह विशिष्ट प्रतिभा नहीं है। सामाजिक अन्योन्याश्रितता अर्थात समाज के सामूहिक और सहयोगी स्वरूप का इसी प्रकार से विकास हो सकता है। पूज्य श्री तनसिंह जी ने इसीलिए अपनी पुस्तक 'साधना पथ' में लिखा है कि - "प्रतिभा तो प्रकृति की किसी व्यक्ति विशेष को प्रदत्त वह सामाजिक थाती है, जिसका सदुपयोग प्रतिभावान के असाधारण बनने में नहीं, किंतु साधारण लोगों के प्रतिभावान बनने में है।" इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्रतिभा के अवतरण के लिए त्याग पूर्ण चरित्र की उपजाऊ आधारभूमि उपलब्ध कराई जाए, न कि उसे अहंकार के दलदल में फंस कर नष्ट होने दिया जाए। श्री क्षत्रिय युवक संघ इसीलिए समाज में त्याग की प्रवृत्ति को स्थापित करने के लिए कार्य कर रहा है, साथ ही अहंकार को गलाकर समाज की सामूहिकता में स्वयं को नियोजित करने का अभ्यास अपनी सामूहिक संस्कारमयी प्रणाली के माध्यम से करा रहा है जिससे व्यक्ति की प्रतिभा अहंकार से कलुषित होने की अपेक्षा सामाजिक न्यास के रूप में पूरे समाज के लिए उपयोगी बन सके।