संपादकीय परजीविता और सहजीविता : पढ़ें पथप्रेरक के 04-03-2025 अंक का संपादकीय आलेख

परजीविता (Parasitism) और सहजीविता (Symbiosis) जीव विज्ञान की अवधारणाएं हैं जिसमें दो जीवों के बीच के संबंध को परिभाषित किया जाता है। इनकी सरल परिभाषा यह है कि परजीविता में एक जीव दूसरे जीव पर निर्भर रहता है और उससे लाभ उठाता है भले ही इस प्रक्रिया में दूसरे जीव को हानि पहुंच रही हो वहीं, सहजीविता में भी दो जीव एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं परंतु इस संबंध से दोनों को लाभ होता है और दोनों एक दूसरे की आवश्यकताएं पूरी करते हैं। परजीविता की धारणा हाल ही में चर्चा का विषय बनी जब 12 फरवरी को भारत के उच्चतम न्यायालय ने शहरों में बेघर लोगों के आश्रय के अधिकार से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई करते हुए चुनावों के समय राजनीतिक दलों द्वारा 'फ्रीबीज' अर्थात् मुफ्त सुविधाओं या धनराशि की योजनाओं की घोषणा के संबंध में टिप्पणी करते हुए कहा कि - 'फ्रीबीज के कारण देश में एक ऐसा परजीवी वर्ग तैयार हो रहा है जो देश की कार्यशक्ति में शामिल होकर राष्ट्रीय विकास में अपनी भूमिका निभाने की बजाय मुफ्तखोरी का शिकार होकर नाकारा बन रहा है।' राष्ट्रीय विकास, मुफ्तखोरी और परजीविता को लेकर उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण और चिंतन करने योग्य है। न्यायालय द्वारा ही नहीं बल्कि अनेक विचारकों, समाजविज्ञानियों, अर्थशास्त्रियों, उद्यमियों आदि के द्वारा भी चुनावी हित साधने के लिए फ्रीबीज अर्थात् रेवड़ी संस्कृति को बढ़ावा देने पर चिंता जताई जाती रही है क्योंकि यह राष्ट्र के एक बड़े समूह को श्रमशक्ति का अंग बनने से रोकती है, उसे निष्क्रिय बनाती है। कृषि के क्षेत्र में तो यह समस्या अधिकाधिक बढ़ती जा रही है क्योंकि मुफ्तखोरी की बढ़ती आदत के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि कार्य हेतु श्रमिकों की भारी कमी होने लगी है। जिस देश में 80 करोड़ से अधिक जनसंख्या आज भी परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर हो, उस देश के लिए यह चिंता का विषय होना ही चाहिए। लेकिन जिन राजनीतिक दलों एवं राजनेताओं के लिए सत्ता ही एकमात्र साध्य बन चुकी है उनके लिए चिंता का विषय मात्र एक ही है कि वे किस प्रकार से सत्ता में आएं और वहां बने रहें, चाहे इसके लिए उन्हें राष्ट्र के लिए दुष्परिणामकारी नीतियां ही क्यों न अपनानी पड़े। इसीलिए प्रत्येक चुनाव के साथ रेवड़ी बांटने की यह संस्कृति बढ़ती जा रही है और परिणाम स्वरूप माननीय उच्चतम न्यायालय की उपरोक्त टिप्पणी के अनुसार देश में एक बड़ा परजीवी वर्ग तैयार होता जा रहा है जो देश के संसाधनों के साथ ही परिश्रम और ईमानदारी से जीविकोपार्जन करने वाले नागरिकों पर भी अप्रत्यक्ष रूप से बोझ बन रहा है।

परजीविता अर्थात् अन्यों के आश्रय पर जीवित रहने की प्रवृत्ति किसी भी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र का आदर्श नहीं बन सकती। स्वावलंबन ही किसी व्यक्ति की उन्नति का आधार बन सकता है और किसी समाज अथवा राष्ट्र को भी स्वावलंबी बनाकर ही विकास के पथ पर अग्रसर किया जा सकता है। परजीविता तो किसी भी व्यक्ति और समाज के स्वाभिमान को नष्ट कर देती है, उसके परिश्रम और संघर्ष की क्षमता को समाप्त कर देती है और उसमें आत्महीनता की भावना को जन्म देकर उसे नकारात्मकता के दुष्चक्र में धकेल देती है। जिन नीति निर्माताओं को ऐसी परजीविता की प्रवृत्ति को समाप्त करने हेतु नीतियों का निर्माण करना चाहिए, विडंबना है कि वे ही इसे प्रोत्साहित करने का कार्य कर रहे हैं। यहां यह भी समझना आवश्यक है कि परजीविता की इस भावना को बढ़ाने में केवल चुनावी रेवड़ी के रूप में मिलने वाली मुफ्त सुविधाएं या राशि आदि ही एकमात्र कारक नहीं है बल्कि जातिगत आरक्षण की अव्यावहारिक व्यवस्था, इतिहास और महापुरुषों की पहचान को बदलना, धर्म अथवा पंथ के नाम पर भय और घृणा को प्रसारित करना आदि भी परजीविता की भावना को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं।

निश्चित रूप से यह सत्य है कि किसी भी परिवार, समाज तथा राष्ट्र में यदि उसका कोई सदस्य या अंश किसी रूप में कमजोर है, असमर्थ है, अक्षम है तो जो सबल, समर्थ और सक्षम हैं, उन्हें उनका भार उठाना चाहिए, उनका हरसंभव सहयोग करना चाहिए। किंतु इसका उपाय परजीविता से नहीं सहजीविता अर्थात् एक दूसरे का सहयोगी होकर जीने की भावना से निकलता है। सहजीविता कौटुंबीय भाव का व्यावहारिक प्रकटीकरण है और कुटुंब में प्रेम, कृतज्ञता और सम्मान के आधार पर आपसी सहयोग खड़ा होता है न कि निर्बलता अथवा सबलता को आधार बनाकर उपलब्ध संसाधनों पर अपने अधिकार की घोषणा की जाती है। भारतीय जीवन वास्तव में इसी सहजीविता के आधार पर विकसित हुआ था और इसीलिए इसमें सभी जाति, पंथ, संप्रदाय, वर्ग आदि बिना किसी अन्य पर आश्रित हुए एक दूसरे के सहयोगी होकर एक वृहद भारतीय परिवार के निर्माण में अपनी भूमिका निभाते रहे थे। यह दुखद है कि वर्तमान में भारतीय जीवन की सहजीविता की उक्त विशेषता को पुष्ट करने की अपेक्षा संकुचित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए राजनेताओं द्वारा परजीविता की घातक प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया जा रहा है। परजीविता कि यह प्रवृत्ति राष्ट्र के लिए तो घातक है ही, परजीविता को धारण करने वाले वर्ग के लिए और भी अधिक घातक है क्योंकि अंततः परजीविता का परिणाम दोनों पक्षों के संघर्ष के रूप में ही सामने आएगा क्योंकि शोषण की नीति दीर्घकाल तक नहीं चलती और अनिवार्य रूप से संघर्ष की जन्मदाता बनती है। उस परिस्थिति में परजीविता के कारण संघर्षक्षमता से रहित हो चुके वर्ग की पराजय अवश्यंभावी है। इसलिए यह केवल नीति-निर्माताओं का ही दायित्व नहीं है कि वे परजीविता को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों को न अपनाएं बल्कि राष्ट्र रूपी परिवार के सदस्य के रूप में सभी का यह दायित्व है कि वे अल्पकालीन लाभ के लिए परजीविता की इस वृत्ति को स्वीकार न करें, बल्कि स्वावलंबन और परिश्रम के आदर्श को अपनाकर स्वयं को सबल, समर्थ और सक्षम बनाने की ओर अग्रसर हों। ऐसा होने पर ही भारतीय जीवन में सहजीविता पुनः साकार हो सकेगी।

Path prerak

8th March, 2025