संपादकीय 'आत्ममंथन की साधना से छलकेगा अमृत-कुम्भ' : पढ़ें पथप्रेरक के 04-02-2025 अंक का संपादकीय आलेख

भारत सदैव से आस्थाओं और विश्वासों का देश रहा है। वर्तमान में भले ही विज्ञान और तकनीक में समृद्ध देशों द्वारा उनसे अर्जित भौतिक शक्ति के द्वारा संसार का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में नेतृत्व किया जा रहा हो किंतु जब भारत ने संसार का विश्व गुरु के रूप में नेतृत्व किया था तब उस नेतृत्व क्षमता का स्रोत भारत के आस्था पूर्ण जीवन से जन्मा सत्य और धर्म ही था। सत्य और धर्म के आधार पर किया गया वह नेतृत्व ही सच्चे अर्थों में नेतृत्व कहा जा सकता है क्योंकि वह सारे संसार को भी उसी सत्य और धर्म के मार्ग पर लाने की भूमिका निभा रहा था। वर्तमान में विज्ञान के आधार पर नेतृत्व करने वाली शक्तियां संसार को किस दिशा में लेकर जा रही हैं, यह संसार की वर्तमान दशा से स्पष्ट ही है। ऐसा नहीं है कि भारत ने विज्ञान को महत्व नहीं दिया या वैज्ञानिक प्रगति से उसे कोई परहेज था लेकिन भारत के मनीषियों ने बहुत पहले ही यह अनुभव कर लिया था कि विज्ञान मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति का साधन तो बन सकता है किंतु सद्-असद् और उचित-अनुचित का निर्णय करने वाले विवेक की जागृति का आधार विज्ञान नहीं बन सकता और ऐसे विवेक के अभाव में कोई भी समाज स्वयं और अन्यों के लिए कल्याणकारी होकर जीवित नहीं रह सकता बल्कि वह स्वयं और अन्यों के लिए विनाश की भूमिका रचने वाला बन जाएगा।

मनीषियों के इसी अनुभव के आधार पर भारत ने आस्था को अपनी प्रधान जीवन शैली के रूप में चुना। यह आस्था केवल आध्यात्मिक ही नहीं थी बल्कि जीवन के प्रत्येक पक्ष के विकास में आस्था की अनिवार्य भूमिका को हमने अनुभव किया था। भारत की उसी आस्था पूर्ण जीवन शैली का एक प्रतीक वर्तमान में प्रयागराज में आयोजित हो रहा महाकुंभ है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन में निकले अमृत कुंभ से छलकी बूंदे जिन स्थानों पर गिरी (प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक), उन स्थानों पर प्रत्येक तीन वर्ष में कुंभ का आयोजन होता है। प्रत्येक छह वर्ष पर अर्ध कुंभ एवं 12 वर्ष पर पूर्ण कुंभ का आयोजन होता है। 12 पूर्ण कुंभ पर एक महाकुंभ आयोजित होता है। गंगा, यमुना एवं अप्रकट सरस्वती नदी के त्रिवेणी संगम पर 13 जनवरी से प्रारंभ हुआ यह 45 दिवसीय महाकुंभ वही 144 वर्षों में एक बार आने वाला अवसर है। बौद्ध धर्म के व्यापक प्रभाव की प्रतिक्रिया में वैदिक धर्म को पुनः प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से आदि शंकराचार्य द्वारा कुंभ को साधुओं, संतों एवं दार्शनिकों के मिलन और धर्म-चर्चा का केंद्र बनाया गया। धर्म के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था पर गहरे प्रभाव के उस युग में इसका महत्त्व और भी अधिक था एवं यहां होने वाले संत समागमों से भारतीय समाज को महत्वपूर्ण आध्यात्मिक व सामाजिक मार्गदर्शन मिलता रहा। दीपावली, होली जैसे अनेकों त्यौहारों, पर्वों व उत्सवों की भांति कुंभ भी आस्था से अनुप्राणित भारतीय जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया। इस महाकुंभ में भी अनुमानित 45 करोड़ लोग भाग लेंगे जो इसके सांस्कृतिक महत्व के साथ ही अभी भी इसमें भारत के जनसामान्य की आस्था का स्पष्ट प्रमाण है।

मानव जीवन को प्रभावित एवं दिशा निर्देशित करने के दृष्टिकोण से आस्था बहुत शक्तिशाली तत्व है लेकिन साथ ही यह अतिसंवेदनशील एवं कोमल तत्व भी है क्योंकि यह जीवन के सूक्ष्म और अप्रकट स्रोत से प्रवाहित होने वाली धारा है। इसलिए जनसामान्य की आस्था का जो कोई प्रतिनिधि बनता है, चाहे वह किसी संत या संन्यासी के रूप में लोगों की आध्यात्मिक आस्था का प्रतिनिधित्व करता हो, किसी राज्य व्यवस्था में किसी पद के रूप में सौंपे गए सामान्यजन के विश्वास का प्रतिनिधित्व करता हो अथवा किसी सामाजिक संगठन में समाज के अपनत्व के भाव का ही प्रतिनिधित्व करता हो, उस प्रतिनिधि का दायित्व बहुत गहरा और गंभीर होता है। वर्तमान में आस्था प्रधान जीवन शैली वाले भारत की यह विडंबना ही है कि आस्था की इस शक्ति का किसी न किसी रूप में अधिपति बनने के लिए तो हर कोई लालायित है, लेकिन उस आधिपत्य के साथ आने वाले दायित्व की गंभीरता को वे अनुभव नहीं कर पाते। जनसामान्य की आस्था के किसी भी रूप का जो कोई प्रतिनिधि बनता है उसका दायित्व है कि वह उस आस्था की शक्ति का उपयोग जन सामान्य के जीवन को शुद्ध, सतोगुणीय और सदाचारी बनाने के लिए करे, उन्हें सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करे लेकिन इसके लिए उस प्रतिनिधि को स्वयं भी साधना का मार्ग अपनाना आवश्यक है। बिना साधना के आस्था का प्रतिनिधित्व नहीं किया जा सकता, आस्था की शक्ति को धारण नहीं किया जा सकता और इसीलिए हम देखते हैं कि आज जहां कहीं आस्था के केंद्र दिखाई देते हैं वे कुछ ही समय में ढह पड़ते हैं और लोगों की आस्था भंग हो जाती है। यहां यह पुनः समझ लेना आवश्यक है कि आस्था का अर्थ केवल आध्यात्मिक या धार्मिक आस्था ही नहीं है बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में किया गया विश्वास आस्था ही है। एक संतान का अपने माता-पिता के प्रति सहज विश्वास और प्रेम भी आस्था ही है, एक विद्यार्थी का अपने शिक्षक द्वारा दिए गए शिक्षण को स्वीकारना भी आस्था का ही रूप है और लोकतंत्र जैसी व्यवस्था भी उस व्यवस्था में जनसामान्य की आस्था पर ही जीवित रहती है। 

इसलिए मनुष्य की आस्था का भंग होना मानवता के लिए एक अभिशाप है क्योंकि आस्था रहित जीवन स्वार्थी, संकुचित और जड़ बन जाता है। आज यदि भारत भी ऐसे ही स्वार्थी, संकुचित और जड़ जीवन का शिकार हो रहा है तो उसे भले ही हम पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण, वामपंथ का प्रभाव आदि कहकर टालने का प्रयास करें लेकिन उसके मूल में भारत की आस्था पूर्ण जीवन शैली का भंग होना ही है और उसका कारण है उस आस्था का प्रतिनिधित्व करने वालों द्वारा उस प्रतिनिधित्व के लिए आवश्यक साधना की शक्ति से रहित होना। अतः आज भारत को आवश्यकता है ऐसे साधकों की जो जीवन के हर क्षेत्र में जन सामान्य की आस्था के योग्य प्रतिनिधि बन सके और उस आस्था को क्रमशः आस्था के उच्चतर केंद्रों की ओर प्रवाहित करें और अंत में आस्था के अंतिम केंद्र परमेश्वर तक पहुंचाएं। ऐसे साधकों की आत्ममंथन की साधना से ही उस अमृत-कुंभ की उत्पत्ति हो सकती है जिससे छलका अमृत भारतीय जीवन की आस्था को पुनः जीवंतता प्रदान कर सकता है। श्री क्षत्रिय युवक संघ ऐसे ही साधकों के निर्माण की कार्यशाला है।

Path prerak

8th February, 2025