संपादकीय पीड़ित मानसिकता से जन्मती है आत्महीनता : पढ़ें पथप्रेरक के 04 जनवरी 2025 अंक का संपादकीय आलेख

हाल ही में भारतीय संसद के उच्च सदन राज्यसभा में विपक्षी दलों द्वारा उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के पदेन सभापति जगदीप धनखड़ पर सदन की कार्यवाही में पक्षपात पूर्ण रवैया अपनाने का आरोप लगाकर उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया गया। यद्यपि राज्यसभा के उपसभापति द्वारा उक्त नोटिस को अस्वीकार कर दिया गया किंतु इस दौरान विपक्षी सांसदों एवं सभापति के बीच हुई बहस में दोनों पक्षों की ओर से जिस तरह की बातें कही गई उनमें दोनों पक्षों द्वारा स्वयं को पीड़ित और कमजोर दिखाकर सहानुभूति और समर्थन प्राप्त करने की मानसिकता स्पष्ट दिखाई दी। विपक्षी सांसदों के हंगामे पर सभापति धनखड़ ने कहा कि मेरा विरोध केवल इसलिए किया जा रहा है कि मैं एक किसान का बेटा हूं। इसके उत्तर में राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि मैं भी एक मजदूर का बेटा हूं इसलिए मेरा संघर्ष आपसे ज्यादा है। देश के उच्चस्थ पदों पर विराजमान व्यक्तियों द्वारा पीड़ित मानसिकता (विक्टिम मेंटेलिटी) का यह प्रदर्शन वास्तव में शोचनीय है। इनके ऐसे व्यवहार को देखकर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या उच्चतम न्यायालय में अधिवक्ता, विधायक, सांसद, राज्यपाल जैसे पदों पर रह चुके और वर्तमान में देश के उपराष्ट्रपति का पद संभाल रहे माननीय अभी भी किसान ही हैं जिस पर कोई भी केवल किसान होने के कारण अत्याचार कर सकता है? क्या अनेक बार विधायक, सांसद, केंद्रीय मंत्री रह चुका राजनेता, जो वर्तमान में देश के एक बड़े राजनीतिक दल का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी है, आज भी एक सामान्य मजदूर जितना ही कमजोर है? यदि हां, तो ऐसे तथाकथित किसान और मजदूर का पिछड़ापन और कमजोरी आखिर कब और किस उपाय से दूर होंगे? यदि नहीं, तो फिर सत्ता के केंद्र में बैठे इन शक्तिशाली और साधन संपन्न लोगों द्वारा इस प्रकार से 'विक्टिम कार्ड' खेलना क्या वास्तव में वंचित और शोषित व्यक्तियों का अपमान नहीं है?

संपन्न और शक्तिशाली होते हुए भी स्वयं को पीड़ित और वंचित बताने की यह मानसिकता इस प्रजातांत्रिक व्यवस्था में नई नहीं है और ना ही उच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों द्वारा इस प्रकार के व्यवहार का यह कोई पहला ही उदाहरण था। हमारे देश की वर्तमान व्यवस्था में इस प्रकार की मानसिकता विभिन्न स्तरों पर एवं विभिन्न रूपों में उपस्थित है। चाहे आरक्षण की व्यवस्था में किसी श्रेणी में एक छोटे प्रभुत्वशाली समूह द्वारा ही आरक्षण का पूरा लाभ उठाने की बात हो या वोटबैंक की राजनीति में एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरुद्ध खड़ा करने के लिए शोषक और शोषित की छद्म विभाजन रेखा खींचने का प्रयत्न हो, यह मानसिकता अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने की जोड़-तोड़ करती हुई अवश्य ही दिखाई पड़ जाएगी। किंतु पीड़ा और वंचना के दावे को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने की यह मानसिकता वास्तव में एक दोधारी तलवार है जो दावेदार वर्ग पर ही दोतरफा प्रहार कर उसे क्षतविक्षत करने का कार्य कर रही है। इस दोधारी तलवार रूपी मानसिकता का जो पहला और स्पष्ट दुष्प्रभाव है, वह है - किसी वर्ग की वंचना और पिछड़ेपन की भावना का उसी वर्ग के स्वार्थी तत्वों द्वारा दोहन और उसके माध्यम से अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और सत्तालोलुपता की पूर्ति करना। ऐसे स्वार्थी तत्व स्वयं तो उन सभी सुविधाओं, साधनों और शक्तियों को प्राप्त कर लेते हैं जो उस वर्ग के सामान्य व्यक्तियों को उपलब्ध नहीं है लेकिन फिर भी स्वयं को सदैव उसी वंचित श्रेणी में ही खड़ा करने का प्रयास करते रहते हैं जिससे उस वर्ग के नेतृत्वकर्ता के रूप में उनका कब्जा बना रहे और उनकी स्वार्थसिद्धि निर्बाध होती रहे। उनकी किसी भी प्राप्ति का लाभ उस वर्ग के सामान्य व्यक्तियों को नहीं मिलता जिसका नेतृत्व करने का वे दावा करते हैं, बल्कि वे उसी प्रकार वंचित और पीड़ित बने रहते हैं। उनके लिए जिन विशेष अवसरों और संसाधनों की व्यवस्था विधि द्वारा की जाती है उनका लाभ भी वही लोग उठाते रहते हैं जो पहले ही शक्ति एवं साधन संपन्न बनकर व्यावहारिक रूप में तो उस वंचित वर्ग से बाहर हो चुके हैं, क्योंकि अब उनके जीवन में कोई वंचना ही नहीं रही लेकिन सैद्धांतिक रूप में वे उसी वर्ग के दावेदार बने रहते हैं।

लेकिन उपरोक्त स्पष्ट दुष्प्रभाव के अतिरिक्त भी इस पीड़ित मानसिकता का एक प्रच्छन्न व अधिक क्षतिकारी दुष्प्रभाव और है जिस पर सामान्यतया चिंतन नहीं किया जाता है और वह है - आत्महीनता की तामसिक भावना को अप्रत्यक्ष रूप में पुष्ट करके आत्मगौरव और स्वावलंबन की सात्विक भावना को हतोत्साहित करना। जब उच्चतम पदों पर पहुंचकर भी किसी वर्ग के व्यक्ति स्वयं को वंचित, पिछड़ा और कमजोर ही बताते रहेंगे तो वे अपने वर्ग में आत्महीनता और असुरक्षा के भाव में ही वृद्धि करेंगे। जिन अवसरों एवं संसाधनों के अभाव में वे अपने को पिछड़ा मानते आए थे, यदि उन्हें प्राप्त कर लेने के बाद भी वे पिछड़े और कमजोर ही रहेंगे तो उनके लिए पिछड़ापन एक परिस्थिति न होकर अस्तित्वगत पहचान बन जाएगी और ऐसा होना किसी भी वर्ग के लिए सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। ऐसे में उनके लिए आत्मगौरव और स्वावलंबन, जो किसी व्यक्ति और समाज के वास्तविक विकास के लिए अनिवार्य आधार हैं, मूल्यहीन हो जाएंगे। यह ऐसा ही है जैसे किसी व्यक्ति को दुर्घटना में चोटिल होने पर कुछ समय के लिए बैसाखी का सहारा लेकर चलना पड़े लेकिन स्वस्थ हो जाने पर भी उसे उसके चिकित्सकों, परिजनों, मित्रों आदि के द्वारा यह विश्वास दिला दिया जाए कि वह बिना बैसाखी के चल ही नहीं सकता इसलिए उसे सदैव उसका प्रयोग करते रहना होगा। यह उस व्यक्ति के प्रति कितना घोर अन्याय होगा, इसे सहज ही समझा जा सकता है। उसका वास्तविक हित जीवनभर बैसाखी के सहारे चलने में नहीं बल्कि पूर्ण स्वस्थ होकर अपने पैरों पर चलने में ही है। अतः किसी भी वर्ग अथवा समाज में पीड़ित मानसिकता का निर्माण अथवा उसे बनाए रखना उस वर्ग अथवा समाज के प्रति घोर अन्याय ही है एवं जब उस वर्ग के नेतृत्वकर्ताओं, जो उच्च संवैधानिक पदों पर भी हैं, द्वारा इस प्रकार की मानसिकता का नि:संकोच प्रदर्शन किया जाता हो तो इसे उस वर्ग का और देश का भी दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। यह स्थिति तभी बदली जा सकती है जब राष्ट्र के नीति निर्माताओं में यह विवेक जागृत हो जाए कि वे समाज के विभिन्न वर्गों में आत्महीनता को पुष्ट करने की अपेक्षा आत्मगौरव और स्वावलंबन के भाव को स्थापित करने के लिए कार्य करना प्रारंभ करें।

Path prerak

7th January, 2025