अपने भीतर के सामाजिक भाव से प्रेरित होकर जो भी ईमानदारी पूर्वक समाज जागरण के कार्य में प्रयत्नरत होते हैं उन सभी का निरपवाद रूप से यह अनुभव रहता है कि समाज जागरण और संगठित सामाजिक शक्ति के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा अहंभाव और व्यक्तिवाद की है। इसलिए समाज के प्रति पूज्य भाव रखकर समाज की सेवा में नियोजित होने वाले को इस अहंभाव और व्यक्तिवाद के विरुद्ध दोहरा संघर्ष करना होता है। पहला, उसे स्वयं अपने भीतर अहंकार और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण को पनपने से रोकना होता है और इसके लिए निरंतर जागृत रहकर आत्म चिंतन करते रहना होता है। यह जीवन पर्यंत साधना से ही संभव है क्योंकि जैसे-जैसे आत्मनिरीक्षण गहरा होता जाता है वैसे-वैसे यह बात भी स्पष्ट होती जाती है कि अहंकार और व्यक्तिवाद के ये विकार हमारे भीतर बहुत सूक्ष्म और प्रच्छन्न रूप में भी उपस्थित रहते हैं और उस रूप में वे केवल सामाजिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि वैयक्तिक चरित्र के उन्नयन से लेकर आध्यात्मिक उन्नति आदि के क्षेत्र में भी बहुत बड़ी बाधाएं हैं। इसलिए समष्टि के सेवा के माध्यम से जीवन के परम लक्ष्य की ओर बढ़ने वाले को अपने भीतरी अहंकार और व्यक्तिवाद से जीवन भर संघर्ष करते रहना होता है।
समाज जागरण के कार्यकर्ता के लिए अहंभाव और व्यक्तिवाद के विरुद्ध संघर्ष का दूसरा स्वरूप है - सामान्य सामाजिक व्यवहार में व्याप्त व्यक्तिवादी दृष्टिकोण को दूर करना। यह बहुत अधिक कठिन कार्य है और इसके लिए निरंतर और सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। इसके लिए समाज के सामान्य व्यक्ति के रूप में हम किस प्रकार के व्यक्तित्वों को महत्व प्रदान करते हैं, समाज में हम किन को प्रतिष्ठित और बड़ा मानते और घोषित करते हैं, किन लोगों की व्यक्तिगत प्रतिभा और बाह्य गुणों से प्रभावित होकर हम उनका जाने-अनजाने अनुसरण करने लग जाते हैं, उनकी बातों और विचारों को प्रचारित करने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में सहयोगी बन जाते हैं, इन सब के बारे में चिंतन करना और समाज में उस चिंतन को विकसित करना होगा। ऐसा इसलिए आवश्यक है कि सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत सभी व्यक्ति विशुद्ध सामाजिक भाव से प्रेरित होकर ही कार्य कर रहे हों, ऐसा आवश्यक नहीं है। अनेक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और हितों को पूरा करने के लिए भी समाज की सेवा के दावेदार बनते हैं तो कई लोग आत्मप्रदर्शन और अपने अहं की तुष्टि के लिए भी समाज को अपना कार्यक्षेत्र बनाते हैं। ऐसे लोगों के पास अच्छे तर्क भी हो सकते हैं, जानकारियां और अकादमिक ज्ञान भी खूब हो सकता है, भाषण-लेखन आदि की कुशलता सहित अनेक अन्य व्यक्तिगत विशेषताएं भी हो सकती हैं, लेकिन क्योंकि उनकी समस्त गतिविधियां मूलतः उनके व्यक्तिवादी स्वभाव से प्रेरित होती हैं इसलिए अंततः ऐसे व्यक्ति सामाजिक शक्ति के निर्माण में सहयोगी होने की बजाय बाधक ही सिद्ध होते हैं। इसीलिए ऐसे व्यक्तियों की पहचान आवश्यक है जिससे वे अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, हितों अथवा अहं की तुष्टि के लिए हमारे सामाजिक भाव का दोहन न कर सकें।
अब प्रश्न उठता है कि ऐसे व्यक्तियों की पहचान कैसे करें? निश्चित रूप से यह कठिन है क्योंकि ऐसे व्यक्तियों के बाह्य व्यवहार के पीछे छिपी वास्तविकता सामान्यतया प्रकट नहीं हो पाती लेकिन यदि हम कुछ सामान्य और मूलभूत सिद्धांतों को कसौटी बनाकर उनके व्यवहार, तर्कों, विचारों आदि का परीक्षण करें तो स्पष्टता से उनकी पहचान हो सकती है। ऐसे व्यक्तियों के तर्कों व विचारों की एकपक्षीयता और उनके आचरण के दोहरेपन से उनकी पहचान सरलता से की जा सकती है। जब कोई हमारे सामने जीवन के केवल नकारात्मक पक्ष को प्रकट करके हमारी घृणा, क्रोध, ईर्ष्या जैसी प्रवृत्तियों को भड़काने का प्रयास करे तो यह समझ लेना चाहिए कि वह किसी न किसी रूप में इस आलेख में पूर्व में वर्णित व्यक्तिवाद का शिकार है। ऐसे ही व्यक्ति किसी के विरुद्ध हमें उकसाने के लिए शास्त्रों से 'शठे शाठ्यम समाचरेत् ' का उद्धरण तो दे देंगे किंतु उन्हीं शास्त्रों में प्रतिपादित 'आत्मवत्सर्वभूतेषु' के दर्शन को स्वीकार करने का साहस नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्ति अपने अनैतिक अथवा छलपूर्ण व्यवहार के लिए भगवान कृष्ण की कूटनीति के उदाहरण तक दे देंगे लेकिन कृष्ण जैसी धर्म के मर्म को जानने वाली सूक्ष्म अंतर्दृष्टि के जागरण के लिए आवश्यक साधना के मार्ग को स्वीकार नहीं करते। ऐसे ही व्यक्ति और उनके समर्थक उन्हें त्याग और बलिदान की परंपरा के वाहक बताकर उनकी महापुरुषों से तुलना करने लगेंगे लेकिन दूसरी ओर अपने ही बंधुओं से स्वार्थ, संपत्ति और सत्ता के झगड़ों में लिप्त दिखाई पड़ जाएंगे। ऐसी वैचारिक एकपक्षीयता और दोहरा आचरण व्यक्तिवाद का ही प्रमाण है। वास्तव में तो 'आत्मवत्सर्वभूतेषु' के दर्शन को अपने जीवन आचरण का अंग बनाने वाला ही दुष्ट के साथ कठोरता का आचरण करने का भी अधिकारी हो सकता है। सत्य की साधना के द्वारा कृष्ण की भांति धर्म के मर्म को पहचानने वाला ही नियमों और नीतियों के बाह्य स्वरूपों का अतिक्रमण कर भी उनके भीतर के सत्य को प्रतिष्ठित कर सकता है। त्याग जिनके लिए दावे का विषय नहीं बल्कि जीवन जीने का ढंग बन जाए, उन्हीं को महापुरुष की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसलिए सामाजिक क्षेत्र में विभिन्न स्तरों पर सक्रिय व्यक्तियों के जीवन को उपरोक्त कसौटियों पर कसकर ही उन्हें हमारे सामाजिक भाव का प्रतिनिधि बनाने का निर्णय करना चाहिए अन्यथा अहंभाव और व्यक्तिवाद से संचालित लोगों द्वारा हमारे सामाजिक भाव के दोहन का क्रम निरंतर चलता रहेगा। व्यक्तिवाद के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सभी रूपों के विरुद्ध संघर्ष करके सामाजिक शक्ति को प्रतिष्ठित करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। जो समाज की सामूहिकता में अपने वैयक्तिक स्वरूप को गलाने के लिए प्रस्तुत हों, वे ही व्यक्तिवाद से मुक्त होकर समाज के नवनिर्माण में नींव के पत्थर की भूमिका निभा सकते हैं। इसीलिए श्री क्षत्रिय युवक संघ का संपूर्ण अभ्यास सहयोगी एवं सामूहिक जीवन का अभ्यास है। इस अभ्यास में सामूहिक शक्ति के निर्देशन व मार्गदर्शन में व्यक्ति के सर्वांगीण उन्नयन में तो पूरा सहयोग मिलता है लेकिन अहंभाव और व्यक्तिवाद को हावी होने का कोई अवसर नहीं मिल पाता। आएं, हम भी इस अभ्यास में शामिल होकर अहंभाव और व्यक्तिवाद के विरुद्ध संघर्ष में नियोजित होवें।
समाज जागरण के कार्यकर्ता के लिए अहंभाव और व्यक्तिवाद के विरुद्ध संघर्ष का दूसरा स्वरूप है - सामान्य सामाजिक व्यवहार में व्याप्त व्यक्तिवादी दृष्टिकोण को दूर करना। यह बहुत अधिक कठिन कार्य है और इसके लिए निरंतर और सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता है। इसके लिए समाज के सामान्य व्यक्ति के रूप में हम किस प्रकार के व्यक्तित्वों को महत्व प्रदान करते हैं, समाज में हम किन को प्रतिष्ठित और बड़ा मानते और घोषित करते हैं, किन लोगों की व्यक्तिगत प्रतिभा और बाह्य गुणों से प्रभावित होकर हम उनका जाने-अनजाने अनुसरण करने लग जाते हैं, उनकी बातों और विचारों को प्रचारित करने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में सहयोगी बन जाते हैं, इन सब के बारे में चिंतन करना और समाज में उस चिंतन को विकसित करना होगा। ऐसा इसलिए आवश्यक है कि सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत सभी व्यक्ति विशुद्ध सामाजिक भाव से प्रेरित होकर ही कार्य कर रहे हों, ऐसा आवश्यक नहीं है। अनेक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और हितों को पूरा करने के लिए भी समाज की सेवा के दावेदार बनते हैं तो कई लोग आत्मप्रदर्शन और अपने अहं की तुष्टि के लिए भी समाज को अपना कार्यक्षेत्र बनाते हैं। ऐसे लोगों के पास अच्छे तर्क भी हो सकते हैं, जानकारियां और अकादमिक ज्ञान भी खूब हो सकता है, भाषण-लेखन आदि की कुशलता सहित अनेक अन्य व्यक्तिगत विशेषताएं भी हो सकती हैं, लेकिन क्योंकि उनकी समस्त गतिविधियां मूलतः उनके व्यक्तिवादी स्वभाव से प्रेरित होती हैं इसलिए अंततः ऐसे व्यक्ति सामाजिक शक्ति के निर्माण में सहयोगी होने की बजाय बाधक ही सिद्ध होते हैं। इसीलिए ऐसे व्यक्तियों की पहचान आवश्यक है जिससे वे अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, हितों अथवा अहं की तुष्टि के लिए हमारे सामाजिक भाव का दोहन न कर सकें।
अब प्रश्न उठता है कि ऐसे व्यक्तियों की पहचान कैसे करें? निश्चित रूप से यह कठिन है क्योंकि ऐसे व्यक्तियों के बाह्य व्यवहार के पीछे छिपी वास्तविकता सामान्यतया प्रकट नहीं हो पाती लेकिन यदि हम कुछ सामान्य और मूलभूत सिद्धांतों को कसौटी बनाकर उनके व्यवहार, तर्कों, विचारों आदि का परीक्षण करें तो स्पष्टता से उनकी पहचान हो सकती है। ऐसे व्यक्तियों के तर्कों व विचारों की एकपक्षीयता और उनके आचरण के दोहरेपन से उनकी पहचान सरलता से की जा सकती है। जब कोई हमारे सामने जीवन के केवल नकारात्मक पक्ष को प्रकट करके हमारी घृणा, क्रोध, ईर्ष्या जैसी प्रवृत्तियों को भड़काने का प्रयास करे तो यह समझ लेना चाहिए कि वह किसी न किसी रूप में इस आलेख में पूर्व में वर्णित व्यक्तिवाद का शिकार है। ऐसे ही व्यक्ति किसी के विरुद्ध हमें उकसाने के लिए शास्त्रों से 'शठे शाठ्यम समाचरेत् ' का उद्धरण तो दे देंगे किंतु उन्हीं शास्त्रों में प्रतिपादित 'आत्मवत्सर्वभूतेषु' के दर्शन को स्वीकार करने का साहस नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्ति अपने अनैतिक अथवा छलपूर्ण व्यवहार के लिए भगवान कृष्ण की कूटनीति के उदाहरण तक दे देंगे लेकिन कृष्ण जैसी धर्म के मर्म को जानने वाली सूक्ष्म अंतर्दृष्टि के जागरण के लिए आवश्यक साधना के मार्ग को स्वीकार नहीं करते। ऐसे ही व्यक्ति और उनके समर्थक उन्हें त्याग और बलिदान की परंपरा के वाहक बताकर उनकी महापुरुषों से तुलना करने लगेंगे लेकिन दूसरी ओर अपने ही बंधुओं से स्वार्थ, संपत्ति और सत्ता के झगड़ों में लिप्त दिखाई पड़ जाएंगे। ऐसी वैचारिक एकपक्षीयता और दोहरा आचरण व्यक्तिवाद का ही प्रमाण है। वास्तव में तो 'आत्मवत्सर्वभूतेषु' के दर्शन को अपने जीवन आचरण का अंग बनाने वाला ही दुष्ट के साथ कठोरता का आचरण करने का भी अधिकारी हो सकता है। सत्य की साधना के द्वारा कृष्ण की भांति धर्म के मर्म को पहचानने वाला ही नियमों और नीतियों के बाह्य स्वरूपों का अतिक्रमण कर भी उनके भीतर के सत्य को प्रतिष्ठित कर सकता है। त्याग जिनके लिए दावे का विषय नहीं बल्कि जीवन जीने का ढंग बन जाए, उन्हीं को महापुरुष की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसलिए सामाजिक क्षेत्र में विभिन्न स्तरों पर सक्रिय व्यक्तियों के जीवन को उपरोक्त कसौटियों पर कसकर ही उन्हें हमारे सामाजिक भाव का प्रतिनिधि बनाने का निर्णय करना चाहिए अन्यथा अहंभाव और व्यक्तिवाद से संचालित लोगों द्वारा हमारे सामाजिक भाव के दोहन का क्रम निरंतर चलता रहेगा। व्यक्तिवाद के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष सभी रूपों के विरुद्ध संघर्ष करके सामाजिक शक्ति को प्रतिष्ठित करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। जो समाज की सामूहिकता में अपने वैयक्तिक स्वरूप को गलाने के लिए प्रस्तुत हों, वे ही व्यक्तिवाद से मुक्त होकर समाज के नवनिर्माण में नींव के पत्थर की भूमिका निभा सकते हैं। इसीलिए श्री क्षत्रिय युवक संघ का संपूर्ण अभ्यास सहयोगी एवं सामूहिक जीवन का अभ्यास है। इस अभ्यास में सामूहिक शक्ति के निर्देशन व मार्गदर्शन में व्यक्ति के सर्वांगीण उन्नयन में तो पूरा सहयोग मिलता है लेकिन अहंभाव और व्यक्तिवाद को हावी होने का कोई अवसर नहीं मिल पाता। आएं, हम भी इस अभ्यास में शामिल होकर अहंभाव और व्यक्तिवाद के विरुद्ध संघर्ष में नियोजित होवें।