हाल ही में पूरे देश में दीपावली का पर्व उल्लास पूर्वक मनाया गया। आदिकाल से भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण पर्व दीपावली, जो अंधकार पर प्रकाश की विजय के प्रतीक पर्व के रूप में प्रतिष्ठित है, को मुख्यतः भगवान श्री राम द्वारा रावण का वध करने के बाद पुनः अयोध्या लौटने पर प्रजा द्वारा घी के दीपक जलाकर हर्ष व्यक्त करने की घटना एवं उस स्मृति की पुनरावृत्ति से जोड़ा जाता रहा है। भारतीय सनातन संस्कृति की यह विशेषता है कि यह सदैव उर्ध्वगामी गति की उपासक और जड़ता की विरोधी रही है इसीलिए इसमें चाहे कोई त्यौहार हो, पूजा पद्धति हो, नियम व सिद्धांत हो, वेशभूषा व खानपान हो, ऐसे किसी भी पक्ष के बाह्य स्वरूप की अपेक्षा उसके मूल में निहित सारभूत दर्शन को ही अधिक महत्व दिया जाता है। यही कारण है कि जीवन के उपरोक्त सभी पक्षों में समय के साथ आने वाले ऐसे बदलाव जो उसे और श्रेष्ठ बनाते हों, भारतीय संस्कृति ने सहर्ष स्वीकार किए हैं, किंतु बाह्य कलेवर में होने वाले इन बदलावों को स्वीकार करके भी अपने भीतरी सत्य और मूलभूत दर्शन का त्याग नहीं किया। इस प्रक्रिया के कारण ही समस्त विरोधों, आक्रमणों और प्रतिकूल परिस्थितियों को झेलकर भी भारतीय संस्कृति अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल रही है। लेकिन भारतीय सनातन संस्कृति की इस सर्वोपरि विशेषता और मूल चरित्र पर वर्तमान में अनेक प्रकार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष आक्रमण हो रहे हैं जिन्हें समझना आवश्यक है। दीपावली के अवसर पर पटाखे एवं आतिशबाजी के प्रयोग को लेकर हर बार की भांति इस बार भी देश भर में एक विवाद का वातावरण निर्मित हुआ और इस विवाद के दोनों पक्षों के तर्कों और उद्देश्यों पर दृष्टिपात करें तो हमें हमारी सनातन संस्कृति पर हो रहे इन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष आक्रमणों का मर्म समझ में आ जाएगा।
एक ओर वे लोग हैं जो दीपावली पर आतिशबाजी और पटाखों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाने की बात करते हैं और इसके लिए वे पर्यावरण को होने वाली हानि, बीमार, वृद्ध, बच्चों और मूक पशुओं को पटाखों के शोर से होने वाली परेशानियों आदि के तर्क देते हैं। कुछ इसी प्रकार के तर्क होली के त्योहार पर पानी की बर्बादी आदि को लेकर भी दिए जाते हैं। यही नहीं, भारतीय संस्कृति में मृत्यु के बाद होने वाले दाह संस्कार में भी लकड़ियों के प्रयोग को कुछ समय से पेड़ काटने के रूप में पर्यावरण को हानि के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। ये सारे तर्क एक दृष्टिकोण से ठीक मालूम हो सकते हैं, इनमें पर्यावरण और जीव-जंतुओं की चिंता की झलक भी दिखाई देती है और एक सरलचित्त व्यक्ति स्वभावतः इन तर्कों से सहमत भी हो सकता है, होना भी चाहिए। अंततोगत्वा प्रकृति और पर्यावरण पर ही हम सभी का जीवन निर्भर है और इसीलिए इन्हें होने वाली किसी भी प्रकार की हानि को रोकने का हमें प्रयास करना ही चाहिए। ये प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक दायित्व है। लेकिन जब इस प्रकार की तार्किकता के प्रतिपादकों के व्यावहारिक जीवन को देखा जाए तो वहां उनकी कथनी और करनी में बड़ा अंतर नजर आता है। ऐसे लोग दीपावली के अवसर पर पटाखे और आतिशबाजी के प्रयोग पर तो घोर आपत्तियां दर्ज करते हैं लेकिन अंग्रेजी नववर्ष जैसे अनेकों अवसरों पर अनेक देशों में बड़े स्तर पर होने वाली आतिशबाजी को लेकर मौन रहते हैं। दीपावली पर पटाखों के शोर से मूक पशुओं को होने वाली परेशानी पर तो वे पीड़ित होते हैं लेकिन स्वयं व्यक्तिगत जीवन में मांसाहार से परहेज नहीं करते, न ही कतिपय संप्रदायों के त्यौहारों पर वृहद स्तर पर दी जाने वाली पशु बलि को लेकर कोई पीड़ा व्यक्त करते हैं। भारतीय पर्वों और परंपराओं से वायु, जल आदि प्रदूषण होने की बात करने वाले ऐसे लोग अवैध खनन, पर्यावरणीय मानकों की उपेक्षा कर हो रहे अनियमित औद्योगीकरण आदि के कारण बड़े स्तर पर हो रहे प्रदूषण को लेकर मौन रहते हैं। इनके ऐसे दोहरे आचरण के कारण ही इनकी तर्कपूर्ण बातों के पीछे छिपे कुटिल उद्देश्य प्रकट हो जाया करते हैं। इनका छिपा उद्देश्य भारतीय सनातन संस्कृति के प्रतीक चिह्नों को अतार्किक, अवैज्ञानिक और गलत सिद्ध करके भारतीयता को कमजोर करने मात्र का होता है और इसीलिए किसी प्रकार के सकारात्मक परिवर्तन की अपेक्षा इनकी बातों का प्रभाव मात्र सामने वाले पक्ष की प्रतिक्रियावादिता को भड़काने के रूप में ही सामने आता है।
वहीं दूसरी ओर, भारतीय सनातन संस्कृति के विरोधी उपरोक्त श्रेणी के लोगों की प्रतिक्रिया में सनातन संस्कृति के तथाकथित दावेदारों की जो प्रतिक्रियाएं हैं, वे भी वास्तव में सनातन संस्कृति के अनुरूप नहीं दिखाई पड़ती बल्कि अप्रत्यक्ष रूप में सनातन संस्कृति के भीतरी सत्य को महत्व देने के मूल चरित्र की विरोधी ही जान पड़ती है। ऐसे लोग अथवा संस्थाएं उन्हीं प्रतीकों, जिनको लेकर पहले पक्ष के लोग आपत्तियां जताते हैं, को और अधिक दृढ़ता से पकड़ कर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि वे प्रतीक ही उस त्यौहार अथवा परंपरा का वास्तविक स्वरूप है। ऐसे व्यक्तियों द्वारा ही पहले पक्ष की आपत्तियों की प्रतिक्रिया में दीपावली पर और अधिक जोर-शोर से आतिशबाजी करके सनातन धर्म की शक्ति सिद्ध करने के नारे दिए जाते हैं। इन नारों के शोर में भीतरी अंधकार को दूर करके अपने भीतर सत्य की ज्योति जगाने का दीपावली का मूल संदेश तो खो जाता है और केवल उसका बाह्य स्वरूप ही महत्त्वपूर्ण बनकर रह जाता है। ऐसा ही सनातन संस्कृति के अन्य पर्वों और परंपराओं के साथ हो रहा है। इस प्रक्रिया में सनातन संस्कृति, जिसे उसके बाह्य स्वरूप के लचीलेपन और अंतर्दर्शन की सुदृढ़ परम्परा के कारण कोई भी बाहरी आक्रमण समाप्त नहीं कर सका, वर्तमान में अपने उस मूल चरित्र को खोकर कट्टरता रूपी जड़ता की शिकार होने की ओर बढ़ रही है। इसलिए आज जितनी आवश्यकता सनातन संस्कृति के विरुद्ध होने वाले आक्रमणों और षड्यंत्रों को विफल करने की है, उतनी ही आवश्यकता सनातन के मूल स्वरूप को समझने, समझाने और आचरण में उतारने की भी है। ऐसा वे लोग नहीं कर सकते जो सनातन को केवल एक नारे और प्रतीक के रूप में प्रयोग कर सत्ता में बने रहना चाहते हैं बल्कि वे लोग कर सकते हैं जो सनातन संस्कृति के आधार में स्थापित सत्य की साधना करके उस सत्य को प्राप्त कर सकते हैं, अपने आचरण में धारण कर सकते हैं, वे ही सनातन संस्कृति के वास्तविक और निखरे हुए रूप को जन-जन में पुनः प्रतिष्ठित कर सकते हैं। श्री क्षत्रिय युवक संघ उसी सत्य की साधना का मार्ग है, आएं, हम भी इस मार्ग के साधक बनें।
एक ओर वे लोग हैं जो दीपावली पर आतिशबाजी और पटाखों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाने की बात करते हैं और इसके लिए वे पर्यावरण को होने वाली हानि, बीमार, वृद्ध, बच्चों और मूक पशुओं को पटाखों के शोर से होने वाली परेशानियों आदि के तर्क देते हैं। कुछ इसी प्रकार के तर्क होली के त्योहार पर पानी की बर्बादी आदि को लेकर भी दिए जाते हैं। यही नहीं, भारतीय संस्कृति में मृत्यु के बाद होने वाले दाह संस्कार में भी लकड़ियों के प्रयोग को कुछ समय से पेड़ काटने के रूप में पर्यावरण को हानि के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। ये सारे तर्क एक दृष्टिकोण से ठीक मालूम हो सकते हैं, इनमें पर्यावरण और जीव-जंतुओं की चिंता की झलक भी दिखाई देती है और एक सरलचित्त व्यक्ति स्वभावतः इन तर्कों से सहमत भी हो सकता है, होना भी चाहिए। अंततोगत्वा प्रकृति और पर्यावरण पर ही हम सभी का जीवन निर्भर है और इसीलिए इन्हें होने वाली किसी भी प्रकार की हानि को रोकने का हमें प्रयास करना ही चाहिए। ये प्रत्येक व्यक्ति का नैतिक दायित्व है। लेकिन जब इस प्रकार की तार्किकता के प्रतिपादकों के व्यावहारिक जीवन को देखा जाए तो वहां उनकी कथनी और करनी में बड़ा अंतर नजर आता है। ऐसे लोग दीपावली के अवसर पर पटाखे और आतिशबाजी के प्रयोग पर तो घोर आपत्तियां दर्ज करते हैं लेकिन अंग्रेजी नववर्ष जैसे अनेकों अवसरों पर अनेक देशों में बड़े स्तर पर होने वाली आतिशबाजी को लेकर मौन रहते हैं। दीपावली पर पटाखों के शोर से मूक पशुओं को होने वाली परेशानी पर तो वे पीड़ित होते हैं लेकिन स्वयं व्यक्तिगत जीवन में मांसाहार से परहेज नहीं करते, न ही कतिपय संप्रदायों के त्यौहारों पर वृहद स्तर पर दी जाने वाली पशु बलि को लेकर कोई पीड़ा व्यक्त करते हैं। भारतीय पर्वों और परंपराओं से वायु, जल आदि प्रदूषण होने की बात करने वाले ऐसे लोग अवैध खनन, पर्यावरणीय मानकों की उपेक्षा कर हो रहे अनियमित औद्योगीकरण आदि के कारण बड़े स्तर पर हो रहे प्रदूषण को लेकर मौन रहते हैं। इनके ऐसे दोहरे आचरण के कारण ही इनकी तर्कपूर्ण बातों के पीछे छिपे कुटिल उद्देश्य प्रकट हो जाया करते हैं। इनका छिपा उद्देश्य भारतीय सनातन संस्कृति के प्रतीक चिह्नों को अतार्किक, अवैज्ञानिक और गलत सिद्ध करके भारतीयता को कमजोर करने मात्र का होता है और इसीलिए किसी प्रकार के सकारात्मक परिवर्तन की अपेक्षा इनकी बातों का प्रभाव मात्र सामने वाले पक्ष की प्रतिक्रियावादिता को भड़काने के रूप में ही सामने आता है।
वहीं दूसरी ओर, भारतीय सनातन संस्कृति के विरोधी उपरोक्त श्रेणी के लोगों की प्रतिक्रिया में सनातन संस्कृति के तथाकथित दावेदारों की जो प्रतिक्रियाएं हैं, वे भी वास्तव में सनातन संस्कृति के अनुरूप नहीं दिखाई पड़ती बल्कि अप्रत्यक्ष रूप में सनातन संस्कृति के भीतरी सत्य को महत्व देने के मूल चरित्र की विरोधी ही जान पड़ती है। ऐसे लोग अथवा संस्थाएं उन्हीं प्रतीकों, जिनको लेकर पहले पक्ष के लोग आपत्तियां जताते हैं, को और अधिक दृढ़ता से पकड़ कर यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि वे प्रतीक ही उस त्यौहार अथवा परंपरा का वास्तविक स्वरूप है। ऐसे व्यक्तियों द्वारा ही पहले पक्ष की आपत्तियों की प्रतिक्रिया में दीपावली पर और अधिक जोर-शोर से आतिशबाजी करके सनातन धर्म की शक्ति सिद्ध करने के नारे दिए जाते हैं। इन नारों के शोर में भीतरी अंधकार को दूर करके अपने भीतर सत्य की ज्योति जगाने का दीपावली का मूल संदेश तो खो जाता है और केवल उसका बाह्य स्वरूप ही महत्त्वपूर्ण बनकर रह जाता है। ऐसा ही सनातन संस्कृति के अन्य पर्वों और परंपराओं के साथ हो रहा है। इस प्रक्रिया में सनातन संस्कृति, जिसे उसके बाह्य स्वरूप के लचीलेपन और अंतर्दर्शन की सुदृढ़ परम्परा के कारण कोई भी बाहरी आक्रमण समाप्त नहीं कर सका, वर्तमान में अपने उस मूल चरित्र को खोकर कट्टरता रूपी जड़ता की शिकार होने की ओर बढ़ रही है। इसलिए आज जितनी आवश्यकता सनातन संस्कृति के विरुद्ध होने वाले आक्रमणों और षड्यंत्रों को विफल करने की है, उतनी ही आवश्यकता सनातन के मूल स्वरूप को समझने, समझाने और आचरण में उतारने की भी है। ऐसा वे लोग नहीं कर सकते जो सनातन को केवल एक नारे और प्रतीक के रूप में प्रयोग कर सत्ता में बने रहना चाहते हैं बल्कि वे लोग कर सकते हैं जो सनातन संस्कृति के आधार में स्थापित सत्य की साधना करके उस सत्य को प्राप्त कर सकते हैं, अपने आचरण में धारण कर सकते हैं, वे ही सनातन संस्कृति के वास्तविक और निखरे हुए रूप को जन-जन में पुनः प्रतिष्ठित कर सकते हैं। श्री क्षत्रिय युवक संघ उसी सत्य की साधना का मार्ग है, आएं, हम भी इस मार्ग के साधक बनें।