संपादकीय वर्चुअल युद्ध में ही नहीं, यथार्थ जीवन में भी सिद्ध करें सामर्थ्य : पढ़ें पथप्रेरक के 4 नवंबर 2024 अंक का संपादकीय आलेख

जाति भारतीय सामाजिक संरचना की विशिष्ट और आधारभूत इकाई है। यह प्रारंभ से ही भारतीय सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग रही है। जाति अपने आप में समानता और अन्यों से विशिष्टता रखने वाला समूह है और इसीलिए यह समूहों के आपसी विभेदों के आधार पर बनी व्यवस्था भी है। किंतु, भारतीय जाति व्यवस्था की यह विशेषता है कि यह विभिन्न समूहों के आपसी विभेदों को बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि उन विभेदों को पाटने के लिए सेतु की भूमिका निभाने के उद्देश्य से विकसित हुई। भारतीय जाति की अवधारणा अन्य जातियों से संघर्ष के उपकरण के रूप में नहीं बल्कि वृहद भारतीय समूह के उपांगों के रूप में सहयोगी और अन्योन्याश्रित जीवन जीने के मार्ग के रूप में विकसित हुई थी। इसी रूप में जाति व्यवस्था भारतीय संस्कृति के आधार की भूमिका में रही और कालांतर में अनेक विकृतियों के आ जाने के बाद भी आज उसी मजबूती से अपने अस्तित्व को बनाए हुए है और आगे भी बनाए रहेगी। जो विकृतियां जाति व्यवस्था में आईं और आ रही हैं, उन्होंने जाति व्यवस्था को नष्ट तो नहीं किया लेकिन उसके सहयोगी स्वरूप को संघर्षपूर्ण बनाने में अवश्य सफलता पाई है। वर्तमान राजनीति में सत्तालोलुप तत्वों द्वारा इन जातीय संघर्षों को चरम पर पहुंचाने का कार्य किया जा रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक विशिष्टता यह है कि सत्ता तो अभी भी कुछ ही लोगों के बीच आधिपत्य का क्षेत्र बनी हुई है लेकिन उस सत्ता तक पहुंचाने वाली राजनीति किसी विशिष्ट दायरे तक सीमित न होकर सामान्य व्यक्तियों के दैनिक जीवन का अनिवार्य अंग बन गई है। सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के लिए कुछ विशिष्ट व्यक्तियों अथवा समूहों के संघर्ष ने भी इसीलिए सामान्य व्यक्तियों के जीवन में प्रवेश पा लिया है और उन्हें इस संघर्ष में नियोजित कर दिया गया है। भारत में बढ़ता जातीय वैमनस्य और संघर्ष उसी का एक रूप है।

इसी संघर्ष का एक सर्व सुलभ साधन वर्तमान में सोशल मीडिया के रूप में उपलब्ध हो गया है जिस पर ना तो किसी प्रकार के नियमन का कोई प्रभावी उपाय है ना ही प्रामाणिकता और सत्यता का वहां कोई महत्त्व रह गया है। सोशल मीडिया सत्तालोलुप तत्वों द्वारा अपने स्वार्थ साधने के लिए जातीय संघर्षों को बढ़ाने का एक महत्त्वपूर्ण पटल बन चुका है और इस षड्यंत्र के शिकार विभिन्न जातियों के सामान्य युवा हो रहे हैं। युवाओं के जातीय और सामाजिक भाव का दोहन करके उसे नकारात्मक स्वरूप प्रदान करने का कार्य सोशल मीडिया के माध्यम से निर्बाध चल रहा है। इसी षड्यंत्र के अंग के रूप में हमारे समाज के विरुद्ध भी सोशल मीडिया पर विषवमन का दौर पिछले काफी समय से चल रहा है। विशेषकर हमारे इतिहास और महापुरुषों की पहचान को विकृत करने के प्रायोजित प्रयास सोशल मीडिया पर निरंतर बढ़ रहे हैं और उसकी प्रतिक्रिया में हमारे समाज के युवा भी अन्य समाजों के युवाओं के साथ एक प्रकार के वर्चुअल युद्ध में उलझ रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व पृथ्वीराज चौहान, मिहिरभोज प्रतिहार जैसे क्षत्रिय महापुरुषों की जाति को लेकर ट्विटर पर ट्रेंड चलाने की होड़ से प्रारंभ हुआ यह दौर निरंतर बढ़ते हुए अब एक दूसरे के समाजों के प्रति निम्नतम स्तर की अपमानजनक टिप्पणियों तक पहुंच गया है और आपसी घृणा को भड़काने का यह क्रम लगातार बढ़ता जा रहा है। किसी समाज का कोई एक व्यक्ति दूसरे समाज के प्रति कोई आपत्तिजनक टिप्पणी करता है और दूसरे समाज के युवा ऐसी टिप्पणी करने वाले व्यक्ति के पूरे समाज को लेकर वैसी ही टिप्पणियां करना प्रारंभ कर देते हैं। अनेक बार तो ये टिप्पणियां अपनी वास्तविक पहचान को छुपा कर छद्म पहचान बनाकर जानबूझकर विभिन्न जातियों और समाजों में आपसी विद्वेष पैदा करने के उद्देश्य से की जाती हैं और प्रतिक्रियावादी स्वभाव वाले युवा ऐसी छद्म पहचान की प्रामाणिकता को जांचे बगैर इस युद्ध में कूद पड़ते हैं। अविवेकपूर्ण प्रतिक्रियावादी स्वभाव किसी भी व्यक्ति की वह कमजोरी है जिसका लाभ षड्यंत्रकारी विरोधी सरलता से उठा सकता है। इसलिए समाज के युवाओं में बढ़ रहे इस प्रतिक्रियावादी सक्रियता को रोककर उनमें विरोधियों के आक्रमणों का सही समय, सही स्थान, सही मंच पर और सही अनुपात में प्रत्युत्तर देने की समझ व विवेक को विकसित करना आवश्यक है। युवाओं को यह बात समझनी होगी कि यदि किसी समाज का कोई व्यक्ति हमारे समाज के विरुद्ध कोई टिप्पणी कर रहा है तो वह व्यक्ति उसके पूरे समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। इसलिए हमारा उद्देश्य भी उसी व्यक्ति के विरोध का होना चाहिए, न कि उस व्यक्ति के पूरे समाज का विरोध और अपमान करना क्योंकि ऐसा करने पर हम वही कर बैठेंगे जो हमारे समाज के विरुद्ध टिप्पणी करने वाला व्यक्ति चाहता था। वहीं, हमें भी इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि हम भी जब कभी सोशल मीडिया पर कोई बात लिखते हैं अथवा किसी अन्य व्यक्ति या समाज के बारे में टिप्पणी करते हैं तब हम भी अपने पूरे समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, इसीलिए हमें उसका दावा भी नहीं करना चाहिए। हमें अपनी बात को व्यक्तिगत स्वरूप में ही प्रकट करनी चाहिए, पूरे समाज के प्रतिनिधि के रूप में नहीं।

यहां यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या इसका अर्थ यह हुआ कि सोशल मीडिया जैसे माध्यमों पर हमारे समाज, हमारे इतिहास, हमारे महापुरुषों के प्रति किए जा रहे दुष्प्रचार और विषवमन को हमें चुपचाप स्वीकार और सहन कर लेना चाहिए? क्या हमें इसके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करनी चाहिए? अवश्य करनी चाहिए लेकिन वह कार्यवाही वैसी नहीं होनी चाहिए जिसकी अपेक्षा हमारे विरोधी पहले से ही कर रहे हों और जो उनको ही लाभ पहुंचाने वाली सिद्ध हो। जो व्यक्ति हमारे समाज के विरुद्ध विष वमन कर रहा है, उसका उद्देश्य क्या है, यह समझकर हमें ऐसा प्रत्युत्तर और प्रतिक्रिया देनी चाहिए जिससे उसका उद्देश्य पूरा न हो। हमारा विरोध उस व्यक्ति का विरोध होना चाहिए ना कि उसके पूरे समाज का। हमारे समाज के विरुद्ध आपत्तिजनक टिप्पणियां करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध हम हर उस प्रकार की उचित व विधि सम्मत कार्यवाही करें जो हमारे स्तर पर संभव हो। इस प्रकार की कार्यवाही तो की ही जाए लेकिन उससे भी अधिक आवश्यक इस बात को समझना है कि हमारे इतिहास की प्रामाणिकता, हमारे महापुरुषों की पहचान, हमारे समाज का गौरव और स्वाभिमान, समाज के सामर्थ्य और समृद्धि आदि को सिद्ध करने का स्थल सोशल मीडिया पर चलने वाला वर्चुअल युद्ध क्षेत्र नहीं है बल्कि वह तो हमारी ऊर्जा के अपव्यय का ही एक साधन है। सोशल मीडिया पर कोई अप्रामाणिक व्यक्ति क्या लिखता है इसका कोई वास्तविक महत्व नहीं है और इसीलिए उसे कोई महत्व देना भी नहीं चाहिए बल्कि जिन स्थलों से किसी भी तथ्य, नैरेटिव आदि को प्रामाणिकता और वैद्यता प्राप्त होती हैं उन स्थलों पर हमारी पहुंच और पकड़ मजबूत कैसे बने, इस पर हमें कार्य करना चाहिए। यही वास्तविक संघर्ष क्षेत्र है। इतिहास पर शोधपूर्ण लेखन, प्रशासनिक सेवाओं में भागीदारी में वृद्धि, राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए समाज सापेक्ष, शत प्रतिशत और एकतरफा मतदान की राजनीतिक जागृति लाना, मुख्यधारा के मीडिया में हमारी मजबूत उपस्थिति जैसे अनेक विषयों पर कार्य करने में हमें अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए। यदि हम ऐसा कर पाते हैं तो हमें सोशल मीडिया जैसे माध्यमों पर स्तरहीन टिप्पणियां करने वाले अप्रामाणिक और अप्रासंगिक तत्वों के सामने अपने सामर्थ्य को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं रहेगी बल्कि उनके प्रति हमारी उपेक्षा मात्र ही उनके विलुप्त होने का कारण बन जाएगी। इसलिए आएं, अपनी ऊर्जा को व्यर्थ गंवाने की अपेक्षा वहां लगाएं, जहां वह समाज को वास्तविक अर्थों में सबल बनाने में सहयोगी हो।

Path prerak

13th November, 2024