संपादकीय संकल्प की दृढ़ता का आधार - शुद्ध विवेक : पढ़ें पथप्रेरक के 19 अक्टूबर 2024 अंक का संपादकीय आलेख

समाज संबंधी विमर्श में अनेक लोगों द्वारा बहुधा यह बात प्रकट की जाती है कि समाज के नाम पर अनेक व्यक्तियों अथवा समूहों द्वारा केवल अपने स्वार्थ साधे जाते हैं, युवाओं की समाज के प्रति भावनाओं का दोहन करके आर्थिक और राजनीतिक लाभ उठाए जाते हैं और समाज की शक्ति का उपयोग व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कर लिया जाता है। यह बात निराधार नहीं है और नि:संदेह ऐसा होता है। केवल समाज के संबंध में ही नहीं बल्कि राष्ट्र, धर्म आदि के संबंध में भी यही सत्य है किंतु हम समाज को केंद्र में रखकर चिंतन करें तो पाएंगे कि समाज के नाम पर व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति की उपरोक्त प्रचलित मान्यता में दो महत्वपूर्ण तथ्य निहित हैं जिनकी पहचान और विश्लेषण से सामाजिक विमर्श एवं चिंतन में महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त हो सकता है। पहला तथ्य है समाज में सामाजिक भाव की प्रचुरता। समाज के नाम पर व्यक्तिगत स्वार्थ साधना निश्चित रूप से निकृष्ट बात है लेकिन उन निकृष्ट लोगों के लिए भी यह संभव केवल इसलिए हो पाता है कि हमारे समाज में सामाजिक भाव प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। समाज के प्रति हमारी अपनत्व की भावना प्रबल है इसीलिए उस भावना को भड़का कर महत्वाकांक्षी और राजनीतिक व्यक्ति अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं। अतः समाज में सामाजिक भावना की व्यापक और निरंतर उपस्थिति इससे स्पष्ट होती है। दूसरा तथ्य, जो समाज के नाम पर व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति की मान्यता में निहित है, वह है - उक्त सामाजिक भाव का निराशा में परिणत होना। हमारा समाज के प्रति अपनत्व का भाव जब व्यक्तिगत और राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित व्यक्तियों द्वारा समाज की सेवा के नाम पर ठग लिया जाता है तो वह सामाजिक भाव आहत होकर निराश हो बैठता है। निराशा के इसी अनुभव के कारण समाज संबंधी विमर्श में बार-बार यह बात अभिव्यक्त होती है कि समाज के नाम पर अधिकांशतया केवल व्यक्तिगत स्वार्थ और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का ही प्रयत्न होता दिखाई पड़ता है। यहां यह समझना आवश्यक है कि व्यक्तिगत स्वार्थ और महत्वाकांक्षा के प्रतिनिधि हमारे सामाजिक भाव के दोहन के लिए सदैव तैयार ही रहेंगे और एक के जाने पर भी अन्यों द्वारा उस स्थान की पूर्ति तुरंत कर ली जाएगी। इसलिए हमारे चिंतन का विषय व्यक्तिगत स्वार्थ और महत्वाकांक्षा के प्रतिनिधियों की उपस्थिति नहीं बल्कि सामाजिक भाव की प्रचुरता और उसकी निराशा में परिणति के तथ्य होने चाहिए।

हम यदि सामाजिक क्षेत्र में होने वाली चर्चाओं और गतिविधियों पर दृष्टिपात करें तो हमें उक्त दोनों तथ्य स्पष्टता से दिखाई पड़ जाएंगे। समाज को प्रभावित करने वाले विभिन्न मुद्दों पर समाज का उद्वेलित होना और प्रतिक्रिया देना, छोटी-बड़ी बहुसंख्यक सामाजिक संस्थाओं की उपस्थिति, इतिहास जैसी हमारी साझा सामाजिक विरासत पर होने वाले आक्रमणों के विरुद्ध सामूहिक आक्रोश जैसे अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जो हमारे सामाजिक भाव की प्रबलता और प्रचुरता को प्रमाणित करते हैं। समाज जागरण के उद्देश्य को लेकर लोकसंग्रह का कार्य करने वाले के लिए सामाजिक भाव की यह प्रचुरता उसमें आशा और उत्साह का संचार करने वाला तथ्य है। दूसरी ओर हमें ऐसे भी अनेकों उदाहरण मिल जाएंगे जहां यह सामाजिक भाव निराशा में परिणत हो गया है और ऐसा होने पर यह निराशा या तो व्यक्ति को निष्क्रिय और पलायनवादी बना देती है अथवा इस निराशा की अभिव्यक्ति समाज को ही दोषी बताने जैसी नकारात्मकता के रूप में होती दिखाई पड़ जाएगी। सामाजिक भाव की यह परिणति दुखद है और इसलिए इसके कारणों और इससे बचने के उपायों पर चिंतन कर लेना भी आवश्यक है। सामाजिक भाव के निराश होने का मूल कारण है - हमारे संकल्प का निर्बल होना। समाज के प्रति हमारे अन्तर में किसी संकल्प के जागरण से ही हमारा सामाजिक भाव सक्रिय होता है। जब तक वह संकल्प जागृत रहता है तब तक वह हमें कर्मशील बनाए रखता है और जब तक हम कर्मशील बने रहते हैं तब तक निराशा हमारे जीवन में नहीं आ सकती। लेकिन जब हमारा संकल्प निर्बल हो जाता है तब हमारी कर्मठता का स्थान निराशा ले लेती है। संकल्प की यह निर्बलता और क्षीणता अधिकांश व्यक्तियों के जीवन में आती है और इसका कारण यह है कि उस संकल्प की स्थापना विवेक के ठोस धरातल पर नहीं की गई थी। समाज के प्रति हमारे संकल्प के जागरण के समय यदि हमारा विवेक स्थिर और जागृत रहा होता तो समाज की विराटता और उसकी तुलना में अपनी अकिंचिनता का हमें भान अवश्य होता। ऐसा होने पर हमें समाज जागरण के कार्य की दुरूहता, उसमें आने वाली बाधाओं और चुनौतियों, उनसे संघर्ष के लिए सामूहिक और संगठित शक्ति की आवश्यकता आदि का भी अनुभव होता और तब हमारा संकल्प केवल क्षणिक भावुकता पर नहीं बल्कि स्थिर विवेक के सुदृढ़ धरातल पर स्थापित होता। ऐसा संकल्प ही सदैव जागृत रहकर हमें निरंतर कर्मशील बनाए रख सकता है और हमारे सामाजिक भाव को निराश और नकारात्मक बनने से बचा सकता है।

इसलिए हमें समाज के प्रति अपने संकल्प का परीक्षण अवश्य कर लेना चाहिए कि वह संकल्प विवेक के सुदृढ़ धरातल पर खड़ा है अथवा नहीं, अन्यथा न तो हमारे सामाजिक भाव को व्यक्तिगत स्वार्थ और महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ने से बचाया जा सकता है और न ही उसे निष्क्रियता अथवा नकारात्मकता का शिकार होने से हम लंबे समय तक बचा सकेंगे। निर्बल और अस्थिर संकल्प से किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती। पूज्य श्री तनसिंह जी ने लिखा है कि - "संकल्प की गरीबी, चरित्र की गरीबी है।" अतः अपने संकल्प को उत्तरोत्तर प्रबल बनाने के लिए उसे विवेकपूर्ण चिंतन का समर्थन निरंतर प्रदान करते रहना चाहिए। यदि पूर्व में किए गए अविवेकपूर्ण संकल्प के निर्बल होने पर हमारे भीतर निराशा और निष्क्रियता आ भी गई है तो भी हमें नवीन संकल्प को जागृत करके उसे विवेक का आधार प्रदान करना चाहिए। शुद्ध विवेक ही हमें लक्ष्य और मार्ग की स्पष्टता प्रदान कर सकता है। श्री क्षत्रिय युवक संघ का दर्शन हमारे भीतर इसी शुद्ध विवेक को विकसित करता है और यहां का सामूहिक व सहयोगी जीवन का अभ्यास समाज के प्रति हमारे संकल्प और सामाजिक भाव को प्रबल बनाता है।

Path prerak

23rd October, 2024